Thursday, October 20, 2011

बरसों का बिछड़ा प्यार ...



बरसों का बिछड़ा प्यार...

बेजान पड़ी सुखी टहनी भी
हरी भरी हो जाती है,
बारिश की पहली बूँद का
पुरजोर असर होता है |
बरसों का बिछडा प्यार मिले
तो यार गजब होता है |


ओस की वो बूँद, कोहरे की वो धुंध;
सब नया नया लगता है |
वही पुराना चाँद फिर आँखों में जँचता है |
बरसों का बिछड़ा प्यार मिले
तो यार गजब लगता है |


बारिश की वो बूँद फिर मोती से
लगने लगते हैं ...
वीराने सीने में फिर
अरमान सुलगने लगते हैं |
आँखों में सारी रात
करवटों में दिन होता है |
बरसों का बिछड़ा प्यार मिले
तो यार गजब लगता है |


शहनाई बजने लगती है,
फिर समां पिघलने लगता है |
हार रात दिवाली लगती है,
हर दिन आँखों में सजता है |
बरसों का बिछड़ा प्यार मिले
तो यार गजब ही लगता है |

Monday, October 3, 2011

आदमी...


आदमी...

दुनिया मैं बादशा है, सो है वो भी आदमी
और मुफलिस ओ गदा है, सो है वो भी आदमी
ज़रदार बे नवा है, सो है वो भी आदमी
नेमत जो खा रहा है, सो है वो भी आदमी
टुकड़े जो मांगता है, सो है वो भी आदमी

अब्दाल ओ कुतब ओ गौस ओ वली, आदमी हुए
मुन्कर भी आदमी हुए, और कुफ्र से भरे
क्या क्या करिश्मे कश्फ़ ओ करामत के किये
हत्ता के अपने ज़हद ओ रियाज़त के जोर से
खालिक से जा मिला है, सो है वो भी आदमी

फ़रऊन  ने किया था जो दावा खुदाई का
शद्दाद भी बहिश्त बना कर हुआ खुदा
नमरूद भी खुदा ही कहाता था बरमला
ये बात है समझने की आगे कहूं मैं क्या
यां तक जो हो चुका है, सो है वो भी आदमी

याँ आदमी ही नार है, और आदमी ही नूर
याँ आदमी ही पास है, और आदमी ही दूर
कुल आदमी का हुस्न ओ क़बह में है याँ ज़हूर
शैतान भी आदमी है, जो करता है मकर ओ जूर
और हादी, रहनुमा है सो है वोह भी आदमी

मस्जिद भी आदमी ने याँ बनायी है मियाँ
बनते हैं आदमी ही इमाम और ख़ुत्बा खां
पढ़ते हैं आदमी ही कुरान और नमाज़ याँ
और आदमी ही उन की चुराते हैं जूतियाँ
जो उनको ताड़ता है, सो है वो भी आदमी

याँ आदमी पे जान को वारे है आदमी
और आदमी ही तेग़ से मारे है आदमी
पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी
चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी
और सुन के दौड़ता है, सो है वो भी आदमी

चलता है आदमी ही मुसाफिर हो, ले के माल
और आदमी ही मारे है, फांसी गले में डाल
याँ आदमी ही सैद है और आदमी ही जाल
सच्चा ही आदमी ही निकलता है मेरे लाल
और झूट का भरा है, सो है वो भी आदमी

याँ आदमी नकीब हो, बोले है बार-बार
और आदमी ही प्यादे हैं, और आदमी सवार
हुक्का, सुराही, जूतियाँ दौड़ें बगल में मार
काँधे पे रख के पालकी, हैं आदमी कहार
और उस पे जो चढ़ा है, सो है वो भी आदमी

बैठें हैं आदमी ही दुकानें लगा लगा
कहता है कोई, लो, कोई कहता है, ला रे ला
और आदमी ही फिरतें हैं रख सर पे खौन्चा
किस किस तरह से बेचे हैं चीज़ें बना बना
और मोल ले रहा है, सो है वो भी आदमी

तबले, मंजीरे, दायरे, सारंगियां बजा
गाते हैं आदमी ही हर इक तरह जा ब जा
रंडी भी आदमी ही नचाते हैं गत लगा
वो आदमी ही नाचे हैं और देखो ये मज़ा
जो नाच देखता है, सो है वो भी आदमी

याँ आदमी ही लाल, जवाहर है बेबहा
और आदमी ही खाक से बदतर है हो गया
काला भी आदमी है के उल्टा है जों तवा
गोरा भी आदमी है के टुकड़ा सा चाँद का
बद-शक्ल ओ बद-नुमा है, सो है वो भी आदमी

इक आदमी हैं जिन के ये कुछ जौक-ओ-बर्क हैं
रूपे के उन के पाँव हैं, सोने के फ़र्क़ हैं
झुमका तमाम गर्ब से ले ताबा शर्क़ हैं
कमख्वाब, ताश, शाल-ओ-दोशालों में ग़र्क़ हैं
और चीथड़ों लगा है, सो है वो भी आदमी

इक ऐसे हैं के जिन के बिछे हैं नए पलंग
फूलों की सेज उन पे झमकती है ताज़ा रंग
सोते हैं लिपटे माशूक-ए-शोख-ओ-संग
सौ सौ तरह से एश के करते हैं रंग-ओ-ढंग
और ख़ाक में पड़ा है, सो है वो भी आदमी

हैराँ हूँ, यारो, देखो तो ये क्या स्वांग है
आप आदमी ही चोर है, और आप ही थांग है
है छीना झपटी, और कहीं मांग तांग है
देखा तो आदमी ही यहाँ मिस्ल-ए-रांग है
फौलाद से कड़ा है, सो है वो भी आदमी

मरने में आदमी ही कफ़न करते हैं तैयार
नहला धुला उठाते हैं काँधे पे कर सवार
कलमा भी पढ़ते जाते हैं, रोते हैं जार जार
सब आदमी ही करते हैं, मुर्दे का कारोबार
और वो जो मर गया है, सो है वो भी आदमी

अशराफ और कमीने से ले, शाह ता वजीर
हैं आदमी ही साहब-ए-इज्ज़त और हक़ीर
याँ आदमी मुरीद हैं, और आदमी ही पीर
अच्छा भी आदमी ही कहाता है ए 'नजीर'
और सब में जो बुरा है, सो है वो भी आदमी

- नज़ीर अकबराबादी 

Thursday, September 29, 2011

सब ठाट पड़ा रह जायेगा जब लाद चलेगा बंजारा...

सब ठाट पड़ा रह जायेगा जब लाद चलेगा बंजारा...




टुक हर्स-ओ-हवा को छोड़ मियाँ, मत देस बिदेस फिरे मारा
कज्ज़ाक अजल का लूटे है दिन रात, बजा कर नक्कारा
क्या बुधिया, भैंसा, बैल, शुतुर, क्या गौएं, पल्ला, सर भारा
क्या गेहूं, चावल, मूठ, मटर, क्या आग, धुआं, क्या अंगारा
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

गर तू है लक्खी बंजारा, और खेप भी तेरी भारी है
ए ग़ाफिल! तुझ से भी चढ़ता, इक और बड़ा ब्योपारी है
क्या शक्कर, मिस्री, कंद, गरी, क्या सांभर, मीठा, खारी है
क्या दाख, मुनक्का, सोंठ, मिर्च, क्या केसर, लौंग, सुपारी है
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

तू बुधिया लादे, बैल भरे, जो पूरब पच्छिम जावेगा
या सूद बढ़ा कर लावेगा, या टोटा, घाटा पावेगा
कज्ज़ाक अजल का रस्ते में, जब भाला मार गिरावेगा
धन, दौलत, नाती, पोता क्या, इक कुनबा काम न आवेगा
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा


हर मंज़िल में अब साथ तेरे ये, जितना डेरा डंडा है
ज़र, दाम, दरम का भांडा है, बंदूक, सिपर और खांडा है
जब नायक तन का निकल गया, जो मुल्कों मुल्कों हांडा है
फिर हांडा है, न भांडा है, न हलवा है, न मांडा है
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

जब चलते चलते रस्ते में, ये गोन तेरी ढल जावेगी
इक बधिया तेरी मट्टी पर, फिर घास न चरने आवेगी
ये खेप जो तूने लादी है, सब हिस्सों में बट जावेगी
दिही, पूत, जंवाई, बेटा क्या, बंजारन पास न आवेगी
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

ये खेप भरे जो जाता है, ये खेप मियाँ मत गिन अपनी
अब कोई घड़ी, पल, साइत में, ये खेप बदन की है खपनी
क्या थाल, कटोरे चांदी के, क्या पीतल की डिबिया, ढपनी
क्या बर्तन सोने रूपये के, क्या मिटटी की हंडिया, चपनी
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

ये धूम धड़क्का साथ लिए, क्यों फिरता है जंगल जंगल
इक तिनका साथ न जावेगा, मौक़ूफ़ हुआ जब अन्न और जल
घर बार, अटारी, चौबारे, क्या ख़ासा, तनसुख, और मलमल
क्या चलून, परदे, फर्श नए, क्या लाल पलंग और रंग महल
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

क्यों जी पर बोझ उठाता है इन गोनों भारी भारी के
जब मौत लुटेरा आन पड़ा, फिर दोने हैं हो पारी के
क्या साज़ जडाव, ज़र, जेवर, क्या गोटे, थान किनारी के
क्या घोड़े जीन सुनहरी के, क्या हाथी लाल उमारी के
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

मगरूर न हो तलवारों पर, मत फूल भरोसे ढालों के
सब पत्ता तोड़ के भागेंगे, मुँह देख अजल के भालों के
क्या डिब्बे, हीरे, मोती के, क्या ढेर ख़जाने मालों के
क्या बुक्चे ताश, मुशज्जर के, क्या तख्ते शाल दोशालों के
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

हर आन नफे और टोटे में, क्यों मरता फिरता है बन बन
टुक ग़ाफिल दिल में सोच ज़रा, है साथ लगा तेरे दुश्मन
क्या लौंडी, बांदी, दाई, ददा, क्या बंदा, चेला, नेक चलन
क्या मंदिर, मस्जिद, ताल, कुआं, क्या घात, सरा, क्या बाग़ चमन
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

जब मर्ग फिरा कर चाबुक को, ये बैल बदन का हांकेगा
कोई नाज समेटेगा तेरा, कोई गोन सिये और टाँकेगा
हो ढेर अकेला जंगल में, तू खाक लहद की फांकेगा
उस जंगल में फिर आह 'नज़ीर', इक फुनगा आन न झांकेगा
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

- नज़ीर अकबराबादी

Wednesday, September 14, 2011

हिंदी की कहानी हिंदी की जुबानी


हिंदी की कहानी हिंदी की जुबानी



सर्वश्व हम लुटा चुके,पुकारता ये छंद है,
की ६४ बसंत खर्चकर भी मुंह क्यों बंद है ?

माना निकम्मी सरकार कम्बख्क्त कर्जखोर है,

हिंद की भाषा का क्या बस यही मोल है ??

या हिंद के बेटों का अब वो खून न है खौलता,

जिसको देखे मात्र से वनराज भी था बोलता |

हिंदी का सम्मान गर लौटाओ तो कुछ बात हो,

खैच लो जिह्वा सभी की जो न मेरे साथ हो |

वर्षों सहे अपमान अपने ही वतन की गोद में,

और कितने साल झोंके जायेंगें फिर शोध में |

रंच मात्र भी किसी को दुःख नहीं अपमान का,

पता नहीं कितने बरस मैं और जिंदा रह पाऊँ |

अपने ही मुल्क में और कितनी बेईज्ज़ती पाऊँ,

ए देश के कर्णधार में और कहाँ जाऊँ ??
   

Wednesday, July 20, 2011

संहार...

संहार...
 
हृदय करे चीत्कार,प्रभु अब शुरू करो संहार,

बहुत हो चुका इक्का-दुक्का हो अब धुवांधार |

सांप सपोले बहुत हो गए जगह नहीं अब शेष,

दूध पिलायें इनको कितना बहुत खा चुके ठेस |

जिसको अपना समझ के पाला हाय रे मेरे देश,

लज्जित करके तुमको दिखाया अपना पापी भेष |

इनको जब तक माफ करोगे,सब सहेगें अत्याचार,  

हृदय करे चीत्कार,प्रभु अब शुरू करो संहार,

बहुत हो चुका इक्का-दुक्का हो अब धुवांधार |

बरसों बीते देख के इनके नाटक वो जज्बाती,

परोपकार का ओढ़ के चोला ऐसा रंग जमाती |

रंग बदलना इनका देख कर गिरगिट भी शर्माती,

लुटा देश को इसने इतना जिह्वा बोल न पाती |

कब तक यूँ हम सहते रहेंगें इनका घोर प्रहार,

हृदय करे चीत्कार,प्रभु अब शुरू करो संहार,

बहुत हो चुका इक्का-दुक्का हो अब धुवांधार |

धरती बदली अम्बर बदला बदली सूरत और सीरत,

एक चीज़ जो अडिग अटल है इनकी कपटी नीयत |

देश को हर जगह से इसने नोच-नोच कर लूटा,

देश-प्रेम कर्त्तव्य से इनका बरसों से नाता छुटा |

अति हो चुकी प्रभु अब ले हाथ उठो तलवार,

हृदय करे चीत्कार,प्रभु अब शुरू करो संहार,

बहुत हो चुका इक्का-दुक्का हो अब धुवांधार |



      



Friday, July 15, 2011

यह आग कब बुझेगी...

यह आग कब बुझेगी...

थकती आँखों ने मेरी वो सारा मंजर देखा है,

इसी बदन ने मेरे वो सारा तड़पन झेला है,

कुछ गोली थी बंदूकों की चुभने वाले खंजर भी थे,

बेरहम कुछ बम के गोले और चंद बहुत आतंकी थे,

इसी सड़क पर उनलोगों ने बहुतों को हलकान किया,

मत पूछो इस कातिल ने कितनों को लहूलुहान किया,

यह वही जगह है जहां लोग बाहर जाने को आते थे,

कुछ खट्टी-मीठी यादों को सीने में समाये जाते थे,

वह निशा बड़ी ही भयावह थी भूले से नहीं भुलाती है,

सच कहता हूँ में हे ईश्वर अब भी वो बड़ा रुलाती है,

उस मानवता के दुश्मन ने मानवता का यूँ खून किया,

कुछ यहाँ गिरे कुछ वहाँ गिरे सर्वश्व हमारा छीन लिया,

वो जिंदादिली वो भोलापन वो तेज दौड़ती जिंदगियां,

कुछ बचा नहीं बस शेष यहाँ में और मेरी सिसकियाँ,

मैं निर्बल नहीं मैं योद्धा हूँ लड़ना ही मेरा धर्म रहा,

गिर कर उठना फिर से लड़ना सदैव यही कर्त्तव्य रहा,

बस एक टीस जो सदा मुझे आठों प्रहर सताती है,

जिसने मेरा सबकुछ लुटा बन गया देश की धाती है,

क़दमों के उसकी वो आहट बैचेन मुझे कर जाती है,

ये सुनने वाले लोग मेरे वो बोझ मेरे सीने पर है,

हलक से उसके प्राण खींच लो नीति यही सिखाती है,

बोझमुक्त कर मुझे जिला दो यह मुंबई कथा सुनाती है |


Monday, April 25, 2011

उलझन...



गर्दिश में सितारे बहुतों के होंगें,

चमन में बहुत से हमारे भी होंगें,

हमारे कुछ अपने बहारों में होंगें,

बहारों के अपने नज़ारे भी होंगें,

नजारों में टूटी हवेली भी होगी,

हवेली में फैली दरारे भी होंगीं,

दरारों में फैली वो मकड़ी के जाले,

वो मकड़ी किसी के सहारे ही होगी,

सहारों की अपनी परिधि भी होगी,

परिधि में उलझी बहुत जिंदगानी,

हर इक ज़िन्दगी की कहानी तो होगी,

कहानी में सीधी कुछ टेढ़ी लकीरें,

लकीरों की बुत पर पेसानी तो होगी,

पेसानी पे छलकी पसीने की बूंदें,

पसीने में बिंदु की अपनी निशानी,

निशाने पे वैसे ज़माना भी होगा,

जमाने की होंगी वो अपनी दीवारे,

दीवारों के पीछे खड़ा सोचता हूँ,

मौजों की अपनी रवानी तो होगी|





Random thoughts...

thought1:-

किसी को प्यार करना तो कोई बात ही नहीं,

किसी का प्यार पा लेना कुछ बड़ी बात है,




किसी प्यार से वही प्यार पा लेना,क्या बात है?


उसी प्यार को अंत तक निभा देना बातें तमाम है|



thought2:-



उम्रे तमाम पढता रहा दोस्तों की मानवता एक चीज़ है,
एक एहसास सीने की,जीने का फ़लसफा,एक तहजीब है,
कसम खुदा की ढूंढा बहुत अहले शहर में इस नाचीज़ को,
लोग घूरते हैं,कसते हैं फब्तियां,कहते है बड़ा अजीब है |

Thursday, April 21, 2011

माँ भारती: हिमालय की जुबानी...

माँ भारती: हिमालय की जुबानी...: "लाल खून से सना हिमालय फिर इतिहास बताता है, छोटी आँखों के पीछे फैला षड़यंत्र आज सुनाता है, हिंदी-चीनी भाई-भाई,फिर शुरू वहाँ संग्राम हुआ, तुम..."

माँ भारती: हिमालय की जुबानी...

माँ भारती: हिमालय की जुबानी...: "लाल खून से सना हिमालय फिर इतिहास बताता है, छोटी आँखों के पीछे फैला षड़यंत्र आज सुनाता है, हिंदी-चीनी भाई-भाई,फिर शुरू वहाँ संग्राम हुआ, तुम..."

हिमालय की जुबानी...

लाल खून से सना हिमालय फिर इतिहास बताता है,
छोटी आँखों के पीछे फैला षड़यंत्र आज सुनाता है,
हिंदी-चीनी भाई-भाई,फिर शुरू वहाँ संग्राम हुआ,
तुम ही बताओ मुल्क का मेरे कैसा वो अंजाम हुआ,
फिजा में फिर से वही हवाएं बहने चारों और लगी,
खबरदार में करता हूँ की चिता हमारी सजने लगी |
मेरी छाती से अब तक वह लहू न धुलने पाया है,
वो गहरा ज़ख्म मेरा अब तलक न भरने पाया है,
वो इतिहास जो गर कभी फिर दुहराया जायेगा,
कसम मुझे की एक भी कोई यूँ न जिंदा जायेगा,
कहर बना हिमराज ये उनपर ऐसे जोर से टूटेगा,
छोटी आँखों का वारिस इस धरा में न कोई छूटेगा |
  

Wednesday, March 23, 2011

ऐसा क्यों होता है...


ज़िन्दगी की धुप में जब पाँव जलने लगते हैं,
अंतर आग में जब हम झुलसने लगते हैं,
हर तरफ विरानगी तन्हायाँ ही दिखती हैं,
करवटों में रात दिन सिसकियों में सोता है,
एक ही आवाज़ आती "ऐसा क्यों होता है"|


जब अपने लोग बेगानों में दिखने लगते हैं,
रिश्तेदारों की गली अनचाहा रस्ता लगता है,
दोस्तों का फ़ोन भी नश्तर सरीखा लगता है,
अँधेरे कोनों में दिन यूँ ही निकलने लगता है,
एक ही आवाज़ आती "ऐसा क्यों होता है"|


मंदिरों और मस्जिदों में शौक़ से न जाते थे,
नाश्तिक बन कर बड़े गर्व से इठलाते थे,
आज ऐसा क्या हुआ मंदिर नज़र आने लगा,
मंदिरों की सीढियों में अब भी दिल यूँ रोता है,
एक ही आवाज़ आती "ऐसा क्यों होता है"|


वक़्त गुजरा,हम भी संभले,नींद भी आने लगी,
दोस्तों के फ़ोन पर यूँ प्यार भी आने लगा,
चिलचिलाती जेठ में अब छाँव ही बस दिखता है,
आज भी पर भोर में तकिया क्यों गीला होता है,
एक ही आवाज़ आती "ऐसा क्यों होता है"|

Friday, March 18, 2011

होलिया में उड़े रे गुलाल ...


रे होलिया रे होलिया होली है....
गाँव का सारा लोग लुगाई लगा दू प्रेम का गुलाल
भंग भंग भंग पिलो पचा के चंग (2)

रे होलिया मैं उड़ा रे गुलाल
कइयो रे  मंगेतर से
होलिया मैं उड़े रे गुलाल
कइयो रे मंगेतर से
म्हारी ये मंगेतर चुडला वाली  (2)
घड़िया वालो रे नवाब कइयो रे मंगेतर से (2)

होलिया मैं उड़े रे गुलाल
कइयो रे मंगेतर से (2)
म्हारी ये मंगेतर नथनी वाली (2)
रे भूचा वालो रे नवाब कइयो रे मंगेतर से (2)

होलिया मैं उड़े रे गुलाल
कइयो रे मंगेतर से
म्हारी ये मंगेतर पायल वाली (2)
रे धोत्या वालो रे नवाब कइयो रे मंगेतर से (2)

होलिया मैं उड़े रे गुलाल
कइयो रे मंगेतर से
म्हारी ये मंगेतर नखरे वाली (2)
पीछे भागे रे नवाब कइयो रे मंगेतर से (2)
होलिया मैं उड़े रे गुलाल
कइयो रे मंगेतर से (8)

Monday, February 28, 2011

अनमोल


मिट्टी की सौंधी खुशबू का कोई मोल नहीं होता,
क्षण में जो मिल जाये यूँ ही वह अनमोल नहीं होता |
छोटा बिम्ब हिमालय का सूरज का तेज बताता है,
किन्तु हिमालय की चोटी को हर कोई भेद नहीं पाता |
द्रोणाचार्य धरा पर यारों देखो यहाँ वहाँ मिलता,
पर कमबख्त दुहाई देखो कोई कर्ण नहीं मिलता |
श्रेष्ठ नहीं वह जिसके उपर कोई श्रेष्ठ नहीं होता,
श्रेष्ठ वही है जिसके नीचे सर्वश्रेष्ठ पड़ा होता |

Monday, February 7, 2011

वर दे, वीणावादिनि वर दे !



वर दे, वीणावादिनि वर दे !
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
        भारत में भर दे !

काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
        जगमग जग कर दे !

नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
        नव पर, नव स्वर दे !

वर दे, वीणावादिनि वर दे।

              -सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

Wednesday, January 26, 2011

माँ भारती को समर्पित





















धरती के ऐसे लाल कहाँ दुनिया में ऐसे मिलते हैं,
बस एक तिरंगे की खातिर सर्वश्व समर्पण करते हैं |
न कोई तिलक न कोई सुभाष दुनिया को मिल पाया है,
स्वर्श्व समर्पण करने को कोई भगत नहीं आया है |
माँ भारती तेरा अहो भाग्य ऐसे सपूत कण-कण में हैं,
दिल-ओ-जान लुटाने का जज्बा तेरे बेटे लिये नयन में हैं|
तेरा एक आँसूं काफी है दुनिया को आग लगा देगें,
कोई दामन को बस छु भर ले हम अपना शीश चढ़ा देंगें |

Monday, January 10, 2011

कसक सीने की ...

बड़े अरमान इस दिल में चाहे तुम हो या की हम,
जो शिद्दत से मिला था यार वो मुड़ जाये क्या होगा ?
मय्यसर नहीं सबको वो सारे ख्वाब वो सपने ,
कोई प्यासा नदी के सामने मर जाये क्या होगा ?
इन्ही नज़रों से ए साथी समझना सबको पड़ता है,
जो होठों से कहा जाये तो वो ज़ज्बात क्या होगा ?
जुब़ा महसूस करती है बयां आँखों से होता है ,
जो होठों से कहा जाये तो वो ज़ज्बात क्या होगा ?
लगे सीने के जख्मों पर ये दिल मायूस होता है ,
बिना बोले जो हो महसूस वो एहसास क्या होगा ?
तड़पना है सभी को इस धरा पर चाहे नर मादा ,
बिना तड़पे जो मर बैठा वो भी इंसान क्या होगा ?
बिना अंगार के ए यार कोई घर नहीं जलता ,
कोई अपना कभी अंगार बन बैठे तो क्या होगा ?

Monday, January 3, 2011

माँ भारती: कल का इंतज़ार

माँ भारती: कल का इंतज़ार: "ग़र गर्दिश में हो सितारा तो गम न कर, अपने आप पर जुल्मो-सितम न कर , कल सवेरा होगा,सूरज भी निकलेगा, कुछ न कर बस कल का इंतज़ार तो कर | जब होगा ..."

कल का इंतज़ार

ग़र गर्दिश में हो सितारा तो गम न कर,
अपने आप पर जुल्मो-सितम न कर ,
कल सवेरा होगा,सूरज भी निकलेगा,
कुछ न कर बस कल का इंतज़ार तो कर |
जब होगा कल तो जेब में सितारे होंगे,
कल के दुश्मन आज तुम्हारे सहारे होंगे,
आज ज़र्रा नहीं तो कल आफ़ताब होगा ,
ग़र आज कालिख़ है तो श्रृंगार भी होगा |