Monday, April 25, 2011

उलझन...



गर्दिश में सितारे बहुतों के होंगें,

चमन में बहुत से हमारे भी होंगें,

हमारे कुछ अपने बहारों में होंगें,

बहारों के अपने नज़ारे भी होंगें,

नजारों में टूटी हवेली भी होगी,

हवेली में फैली दरारे भी होंगीं,

दरारों में फैली वो मकड़ी के जाले,

वो मकड़ी किसी के सहारे ही होगी,

सहारों की अपनी परिधि भी होगी,

परिधि में उलझी बहुत जिंदगानी,

हर इक ज़िन्दगी की कहानी तो होगी,

कहानी में सीधी कुछ टेढ़ी लकीरें,

लकीरों की बुत पर पेसानी तो होगी,

पेसानी पे छलकी पसीने की बूंदें,

पसीने में बिंदु की अपनी निशानी,

निशाने पे वैसे ज़माना भी होगा,

जमाने की होंगी वो अपनी दीवारे,

दीवारों के पीछे खड़ा सोचता हूँ,

मौजों की अपनी रवानी तो होगी|





3 comments:

  1. बिलकुल मौज़ों की रवानी तो होगी ही। शुभकामनायें।

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  2. धन्यवाद निर्मला जी !!!

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  3. superlike...aise hi likhte rahiye

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