Tuesday, November 27, 2018

चुनाव...


मज़हब  के बाजार में आज रंग बिखरे मिले
कुछ हरे, कुछ नीले, कुछ भगवे में मिले |

कुछ को बदस्तूर मंदिर याद आया,
कुछ दरगाह तो कुछ मस्जिदों में मिले |

खेती, बेरोज़गारी, गरीबी और हस्पताल कहीं खो गया,
कसम से ये बावला विकास कहीं खो गया |

किसी को हड़प्पा की खुदाई में गोत्र मिला,
तो किसी को ज़बरदस्त करतारपुर कॉरिडोर मिला |

आगे देखिये जनाब बहुत सा मंज़र अभी बाकी है,
रंगे-महफ़िल और सजेगी अभी चुनाव बाकी है |

Saturday, November 3, 2018

एक सोच


हिन्दू को हिन्दू रहने दो,
मुसलमान को मुसलमान |
सबका अपना वज़ूद है,
अलग रंग, तहज़ीब और ईमान
क्यों घर वापसी करा रहे हो ??
क्यों सबको मिला रहे हो ??
मिला दिया तो घनघोर स्याह काला हो जायेगा
वो इंद्रधनुष कही खो जायेगा
वही जिसे देख कर सुकून मिलता है,
हर एक विशाल का दोस्त कोई ज़हीर होता है |
क्या परेशानी है ?? कैसी मुश्किल है ??
गर कोई खान गणपति बिठाता है,
कोई सिंह रोज़ा निभाता है |
बरसों पुरानी गंगा जमुनी तहज़ीब है अपनी
समेटो मत, इसे खुल कर बिखरने दो
सब अपने है यार सबको निखरने दो |


Monday, February 27, 2017

सफर

सफर ...

आज कल परसों में बरसों बीत गए, 
वो बचपन का खेल अल्हड जवानी अर्सों बीत गए|
नयी निक्कर जो पहनी वो कल चुस्त हो गयी,
कमबख्त चलती घडी भी सुस्त हो गयी ।
याद किया तो वो काफी पहले का वाकया था,
आधी नींद में जो घडी देखी वो दुरुस्त नहीं थी ।
वो बूढा पलंग जिस पे सोता हूँ अब भी,
घुटने में उसके कुछ बीमारी हो गयी 
तकिया रज़ाई वो कड़वी दवाई,
बुढ़ापे की साथी हमारी हो गयी 
रात बहुत काली दिन बड़े लंबे हो गए,
लम्हे चुनते चुनते बरसों हो गए |

Wednesday, July 29, 2015

आखिरी सलाम



"इस सदी के कबीर को मेरी भावभीनी अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि"


अधर से टुटा जो तारा वो सबका ही दुलारा था
क्या मुल्ला वो क्या पंडित सारे जग से न्यारा था ।
न उसका धर्म था कोई न उसकी कोई जाती थी
किया जो कर्म उसने हर तरफ उसकी ही ख्याति थी ।
हुनर उसके यूँ सर चढ़कर कुछ इस कदर बोले
की सारा विश्व नत मस्तक क्या बोलें? क्या बोलें ?
समूचे हिन्द के जो इश्क़ का पर्याय बन गया
कहा जो उसने कभी जो भी समाचार बन गया ।
उठे जो हाथ करोड़ों अंतिम सलामी में उसकी
ज़माना याद रखे उसको जो कलाम बन गया ।

Sunday, March 10, 2013

माँ

 

माँ - मुन्नवर राणा

सुख देती हुई माओं को गिनती नहीं आती
पीपल की घनी छायों को गिनती नहीं आती।

लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती,
बस एक माँ है जो कभी खफ़ा नहीं होती।

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है।

मैंने रोते हुए पोछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुप्पट्टा अपना।

अभी ज़िंदा है माँ मेरी, मुझे कुछ भी नहीं होगा,
मैं घर से जब निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है।

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है,
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है।

ऐ अंधेरे देख ले मुंह तेरा काला हो गया,
माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया।

मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊं
मां से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ।

मुनव्वर‘ माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती

Friday, September 21, 2012

मजबूरी




देश की हालत इस कदर बदल गई,
दिल भी दुखी, मन भी दुखी |

दिल बोले कुछ कर पगले,देश तुम्हारा है,
मन कहे छोड़ यार, ये किसको गवारा है |

दिल बोले, सिस्टम बदल डाल, कुछ कर डाल,
मन बोले वाह जिस पर पड़ी है सिस्टम की मार,
वह बोले प्यारे सिस्टम बदल डाल |

दिल बोले, कुछ कर,कब तक हाथ पर हाथ धरे बैठा रहेगा,
मन बोले, चुप बैठ,वरना धरने के लिए हाथ भी नहीं रहेगा |

दिल बोले,ये गलत है, तुने हार मान ली,
मन बोले पगले,तभी  तो हमने  डेमोक्रेसी अपना ली |

Thursday, October 20, 2011

बरसों का बिछड़ा प्यार ...



बरसों का बिछड़ा प्यार...

बेजान पड़ी सुखी टहनी भी
हरी भरी हो जाती है,
बारिश की पहली बूँद का
पुरजोर असर होता है |
बरसों का बिछडा प्यार मिले
तो यार गजब होता है |


ओस की वो बूँद, कोहरे की वो धुंध;
सब नया नया लगता है |
वही पुराना चाँद फिर आँखों में जँचता है |
बरसों का बिछड़ा प्यार मिले
तो यार गजब लगता है |


बारिश की वो बूँद फिर मोती से
लगने लगते हैं ...
वीराने सीने में फिर
अरमान सुलगने लगते हैं |
आँखों में सारी रात
करवटों में दिन होता है |
बरसों का बिछड़ा प्यार मिले
तो यार गजब लगता है |


शहनाई बजने लगती है,
फिर समां पिघलने लगता है |
हार रात दिवाली लगती है,
हर दिन आँखों में सजता है |
बरसों का बिछड़ा प्यार मिले
तो यार गजब ही लगता है |

Monday, October 3, 2011

आदमी...


आदमी...

दुनिया मैं बादशा है, सो है वो भी आदमी
और मुफलिस ओ गदा है, सो है वो भी आदमी
ज़रदार बे नवा है, सो है वो भी आदमी
नेमत जो खा रहा है, सो है वो भी आदमी
टुकड़े जो मांगता है, सो है वो भी आदमी

अब्दाल ओ कुतब ओ गौस ओ वली, आदमी हुए
मुन्कर भी आदमी हुए, और कुफ्र से भरे
क्या क्या करिश्मे कश्फ़ ओ करामत के किये
हत्ता के अपने ज़हद ओ रियाज़त के जोर से
खालिक से जा मिला है, सो है वो भी आदमी

फ़रऊन  ने किया था जो दावा खुदाई का
शद्दाद भी बहिश्त बना कर हुआ खुदा
नमरूद भी खुदा ही कहाता था बरमला
ये बात है समझने की आगे कहूं मैं क्या
यां तक जो हो चुका है, सो है वो भी आदमी

याँ आदमी ही नार है, और आदमी ही नूर
याँ आदमी ही पास है, और आदमी ही दूर
कुल आदमी का हुस्न ओ क़बह में है याँ ज़हूर
शैतान भी आदमी है, जो करता है मकर ओ जूर
और हादी, रहनुमा है सो है वोह भी आदमी

मस्जिद भी आदमी ने याँ बनायी है मियाँ
बनते हैं आदमी ही इमाम और ख़ुत्बा खां
पढ़ते हैं आदमी ही कुरान और नमाज़ याँ
और आदमी ही उन की चुराते हैं जूतियाँ
जो उनको ताड़ता है, सो है वो भी आदमी

याँ आदमी पे जान को वारे है आदमी
और आदमी ही तेग़ से मारे है आदमी
पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी
चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी
और सुन के दौड़ता है, सो है वो भी आदमी

चलता है आदमी ही मुसाफिर हो, ले के माल
और आदमी ही मारे है, फांसी गले में डाल
याँ आदमी ही सैद है और आदमी ही जाल
सच्चा ही आदमी ही निकलता है मेरे लाल
और झूट का भरा है, सो है वो भी आदमी

याँ आदमी नकीब हो, बोले है बार-बार
और आदमी ही प्यादे हैं, और आदमी सवार
हुक्का, सुराही, जूतियाँ दौड़ें बगल में मार
काँधे पे रख के पालकी, हैं आदमी कहार
और उस पे जो चढ़ा है, सो है वो भी आदमी

बैठें हैं आदमी ही दुकानें लगा लगा
कहता है कोई, लो, कोई कहता है, ला रे ला
और आदमी ही फिरतें हैं रख सर पे खौन्चा
किस किस तरह से बेचे हैं चीज़ें बना बना
और मोल ले रहा है, सो है वो भी आदमी

तबले, मंजीरे, दायरे, सारंगियां बजा
गाते हैं आदमी ही हर इक तरह जा ब जा
रंडी भी आदमी ही नचाते हैं गत लगा
वो आदमी ही नाचे हैं और देखो ये मज़ा
जो नाच देखता है, सो है वो भी आदमी

याँ आदमी ही लाल, जवाहर है बेबहा
और आदमी ही खाक से बदतर है हो गया
काला भी आदमी है के उल्टा है जों तवा
गोरा भी आदमी है के टुकड़ा सा चाँद का
बद-शक्ल ओ बद-नुमा है, सो है वो भी आदमी

इक आदमी हैं जिन के ये कुछ जौक-ओ-बर्क हैं
रूपे के उन के पाँव हैं, सोने के फ़र्क़ हैं
झुमका तमाम गर्ब से ले ताबा शर्क़ हैं
कमख्वाब, ताश, शाल-ओ-दोशालों में ग़र्क़ हैं
और चीथड़ों लगा है, सो है वो भी आदमी

इक ऐसे हैं के जिन के बिछे हैं नए पलंग
फूलों की सेज उन पे झमकती है ताज़ा रंग
सोते हैं लिपटे माशूक-ए-शोख-ओ-संग
सौ सौ तरह से एश के करते हैं रंग-ओ-ढंग
और ख़ाक में पड़ा है, सो है वो भी आदमी

हैराँ हूँ, यारो, देखो तो ये क्या स्वांग है
आप आदमी ही चोर है, और आप ही थांग है
है छीना झपटी, और कहीं मांग तांग है
देखा तो आदमी ही यहाँ मिस्ल-ए-रांग है
फौलाद से कड़ा है, सो है वो भी आदमी

मरने में आदमी ही कफ़न करते हैं तैयार
नहला धुला उठाते हैं काँधे पे कर सवार
कलमा भी पढ़ते जाते हैं, रोते हैं जार जार
सब आदमी ही करते हैं, मुर्दे का कारोबार
और वो जो मर गया है, सो है वो भी आदमी

अशराफ और कमीने से ले, शाह ता वजीर
हैं आदमी ही साहब-ए-इज्ज़त और हक़ीर
याँ आदमी मुरीद हैं, और आदमी ही पीर
अच्छा भी आदमी ही कहाता है ए 'नजीर'
और सब में जो बुरा है, सो है वो भी आदमी

- नज़ीर अकबराबादी 

Thursday, September 29, 2011

सब ठाट पड़ा रह जायेगा जब लाद चलेगा बंजारा...

सब ठाट पड़ा रह जायेगा जब लाद चलेगा बंजारा...




टुक हर्स-ओ-हवा को छोड़ मियाँ, मत देस बिदेस फिरे मारा
कज्ज़ाक अजल का लूटे है दिन रात, बजा कर नक्कारा
क्या बुधिया, भैंसा, बैल, शुतुर, क्या गौएं, पल्ला, सर भारा
क्या गेहूं, चावल, मूठ, मटर, क्या आग, धुआं, क्या अंगारा
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

गर तू है लक्खी बंजारा, और खेप भी तेरी भारी है
ए ग़ाफिल! तुझ से भी चढ़ता, इक और बड़ा ब्योपारी है
क्या शक्कर, मिस्री, कंद, गरी, क्या सांभर, मीठा, खारी है
क्या दाख, मुनक्का, सोंठ, मिर्च, क्या केसर, लौंग, सुपारी है
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

तू बुधिया लादे, बैल भरे, जो पूरब पच्छिम जावेगा
या सूद बढ़ा कर लावेगा, या टोटा, घाटा पावेगा
कज्ज़ाक अजल का रस्ते में, जब भाला मार गिरावेगा
धन, दौलत, नाती, पोता क्या, इक कुनबा काम न आवेगा
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा


हर मंज़िल में अब साथ तेरे ये, जितना डेरा डंडा है
ज़र, दाम, दरम का भांडा है, बंदूक, सिपर और खांडा है
जब नायक तन का निकल गया, जो मुल्कों मुल्कों हांडा है
फिर हांडा है, न भांडा है, न हलवा है, न मांडा है
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

जब चलते चलते रस्ते में, ये गोन तेरी ढल जावेगी
इक बधिया तेरी मट्टी पर, फिर घास न चरने आवेगी
ये खेप जो तूने लादी है, सब हिस्सों में बट जावेगी
दिही, पूत, जंवाई, बेटा क्या, बंजारन पास न आवेगी
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

ये खेप भरे जो जाता है, ये खेप मियाँ मत गिन अपनी
अब कोई घड़ी, पल, साइत में, ये खेप बदन की है खपनी
क्या थाल, कटोरे चांदी के, क्या पीतल की डिबिया, ढपनी
क्या बर्तन सोने रूपये के, क्या मिटटी की हंडिया, चपनी
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

ये धूम धड़क्का साथ लिए, क्यों फिरता है जंगल जंगल
इक तिनका साथ न जावेगा, मौक़ूफ़ हुआ जब अन्न और जल
घर बार, अटारी, चौबारे, क्या ख़ासा, तनसुख, और मलमल
क्या चलून, परदे, फर्श नए, क्या लाल पलंग और रंग महल
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

क्यों जी पर बोझ उठाता है इन गोनों भारी भारी के
जब मौत लुटेरा आन पड़ा, फिर दोने हैं हो पारी के
क्या साज़ जडाव, ज़र, जेवर, क्या गोटे, थान किनारी के
क्या घोड़े जीन सुनहरी के, क्या हाथी लाल उमारी के
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

मगरूर न हो तलवारों पर, मत फूल भरोसे ढालों के
सब पत्ता तोड़ के भागेंगे, मुँह देख अजल के भालों के
क्या डिब्बे, हीरे, मोती के, क्या ढेर ख़जाने मालों के
क्या बुक्चे ताश, मुशज्जर के, क्या तख्ते शाल दोशालों के
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

हर आन नफे और टोटे में, क्यों मरता फिरता है बन बन
टुक ग़ाफिल दिल में सोच ज़रा, है साथ लगा तेरे दुश्मन
क्या लौंडी, बांदी, दाई, ददा, क्या बंदा, चेला, नेक चलन
क्या मंदिर, मस्जिद, ताल, कुआं, क्या घात, सरा, क्या बाग़ चमन
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

जब मर्ग फिरा कर चाबुक को, ये बैल बदन का हांकेगा
कोई नाज समेटेगा तेरा, कोई गोन सिये और टाँकेगा
हो ढेर अकेला जंगल में, तू खाक लहद की फांकेगा
उस जंगल में फिर आह 'नज़ीर', इक फुनगा आन न झांकेगा
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा

- नज़ीर अकबराबादी

Wednesday, September 14, 2011

हिंदी की कहानी हिंदी की जुबानी


हिंदी की कहानी हिंदी की जुबानी



सर्वश्व हम लुटा चुके,पुकारता ये छंद है,
की ६४ बसंत खर्चकर भी मुंह क्यों बंद है ?

माना निकम्मी सरकार कम्बख्क्त कर्जखोर है,

हिंद की भाषा का क्या बस यही मोल है ??

या हिंद के बेटों का अब वो खून न है खौलता,

जिसको देखे मात्र से वनराज भी था बोलता |

हिंदी का सम्मान गर लौटाओ तो कुछ बात हो,

खैच लो जिह्वा सभी की जो न मेरे साथ हो |

वर्षों सहे अपमान अपने ही वतन की गोद में,

और कितने साल झोंके जायेंगें फिर शोध में |

रंच मात्र भी किसी को दुःख नहीं अपमान का,

पता नहीं कितने बरस मैं और जिंदा रह पाऊँ |

अपने ही मुल्क में और कितनी बेईज्ज़ती पाऊँ,

ए देश के कर्णधार में और कहाँ जाऊँ ??